सुन री माए... (माँ को समर्पित)

>> Thursday, September 23, 2010

(Written on 27th April 2009)

आज माँ की बहुत याद रही है,
पिछले बरस, आज ही के दिन, माँ ने विदाई ली थी, भारी मन से हमें उन्हें विदा करना पड़ा था!
बस मन करता है किसी तरह से उन्हें वापस बुला लायें!

माँ के बिना कैसा लगता है?
ऐसा... जैसे बर्फ से बने जिस्म में धू धू जलता दिल..
जैसे पत्थर की मूर्ति की आँख में नमी,
जैसे, पोलियो से ग्रस्त बच्चे के कंधे पर रखा भारी बोझ ...

माँ के जाने के मुश्किल से १५ दिन बाद "Mother's Day" पर एक श्रधांजलि दी थी माँ को.. उसे यहाँ समेट रही हूँ..
हो सके तो मेरी प्यारी माँ को आप भी अपनी श्रधांजलि दीजियेगा!!
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सुन री माए, मुझको कोई नया खिलौना ला दे ना,
चाँद तारो से भरा आसमानी बिछौना ला दे माँ…

कितनी थीं बातें करने वाली, कितनी कम मुलाक़ातें,
खींचे खींचे से दिन है अब और लंबी तनहा रातें…
माथे पर मेरे हाथ धर दे चैन मुझे आ जाए,
नींदों पर ममता भरा सपन सलोना बिखरा दे माँ…

तेरी बिंदिया, तेरी चूड़ी, और वो तेरी हँसती आँखें,
मेरे मन में याद बन कर जैसे हर पल तू मुझे झाँके…
तेरा आँचल लहरा लहरा कर मुझे तरसा तरसा जाए,
अब तो मुझको अपने आँचल का एक कोना पकड़ा दे माँ…

कैसे हो गयी दूर तू मुझसे, मैं हर पल ये सोचूँ,
तू ही कह दे, तू जो नहीं तो अपने आँसू कैसे रोकुँ…
मैं भी तुझ तक आना चाहूं, माँ मुझको पास बुला ले,
कदम से मेरे, अपने कदमों तक रस्ता दिखला दे माँ…

है मेरा कुसूर यह, मैने तुझको लाख तकलीफे दी है,
लेकिन तेरी याद में मेरी अब तो आँखें भीगी सी है…
मुझको माफ़ कर दे माँ, अब उठ कर गले से लगा ले,
आँखें खोलो, कुछ तो बोलो,
ना चुप रहकर यू सज़ा दे माँ


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Sunn ri maaye, mujhko koi naya khilona la de na,
Chaand Taaro se bhara aasmaani bichhona la de maa…

Kitni thi baatein karne waali, kitni kam mulakaatein,
Khinche Khinche se din hai ab aur lambi tanha raatein…
Maathe par mere haath dhar de chain mujhe aa jaaye,
Neendo par mamta bhara sapan salona bikhra de maa…

Teri bindiya, teri choodi, aur woh teri hansti aankhein,
Mere man mein yaad ban kar jaise har pal tu mujhe jhaanke…
Tera aanchal lehra lehra kar mujhe tarsa tarsa jaaye,
Ab to mujhko apne aanchal ka ek kona pakda de maa…

Kaise ho gayi duur tu mujhse, main har pal ye sochun,
Tu hi keh de, tu jo nahin to apne aansu kaise rokun…
Main bhi tujh tak aana chaahun, mujhko paas bula le,
Kadam se mere, apne kadamon tak rasta dikhla de maa…

Hai mera kusoor yeh, maine tujhko laakh takleefe di hai,
Lekin teri yaad mein meri ab to aankhein bheegi si hai…
Mujhko maaf kar de maa, ab uth kar galey se laga le,
Aankhein kholo, kuch to bolo, na chup rehkar yu saza de maa…

(I know, this is Net World. Like my all the other works, this poetry will also be copied by someone somewhere. But Just could request to please mention my name with this one ATLEAST ... I will take this as your respect for human values and thoughts.. Thanks a Lot..)

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Muqqaddar Ya Muhabbat

>> Saturday, May 1, 2010


मेरी नींद में, जगमगा रहा था..
मेरे ख्वाब में मुस्कुरा रहा था वो..
मेरी साँसों में महक रहा था..
मेरे तस्सवुर में बहक रहा था वो..


हर इक आरज़ू, हर इक ज़ुस्तज़ू..
मेरी उम्मीद भी, और हर ख़याल भी...
मुझ पर मुहब्बतें लुटा रहा था वो..
ज़िंदगी जीना मुझे सीखा रहा था वो..


सपना तो नही, पर सपने जैसे था,
अपना तो नही.. पर अपने जैसा ही था..
सीने से मुझे लगा रहा था वो,
दूर मुझसे बहुत जा रहा था वो...


बढ़े जो फ़ासले, बढ़ी उलझनें,
मुक़्क़द्दर कहे या फिर मुहब्बतें...
उसे देख के मुस्कुरा रही थी मैं,
मुझे देख कर मुस्कुरा रहा था वो..
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Meri neend mein, Jagmaga raha tha..
Mere khwaab mein muskura raha tha wo..
Meri saanson mein mehak raha tha..
Mere tasavvur mein behak raha tha wo..

Har ek aarzoo, Har ek Justju..
Meri umeed bhi, Aur har khayaal bhi...
Mujh par muhabbatein luta raha tha wo..
Zindagi jeena mujhe seekha raha tha wo..

Sapna to nahi, Par sapne jaise tha,
Apna to nahi.. par apne jaisa hi tha..
Seene se mujhe laga raha tha wo,
Duur mujhse bahut jaa raha tha wo...

Badhe jo faasle, Badhi uljhaanein,
Muqaddar kahe ya phir muhabbatein...
Usey dekh ke muskuraa rahi thi main,
Mujhe dekh kar muskura raha tha wo..

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